फेल होने पर खुदकुशी? ये तो नहीं हैं ‘रिजल्ट’ के मायने, पेरेंट्स भी सोचकर देखें

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ये रिजल्ट का मौसम है. रिजल्ट यानी एजुकेशन सिस्टम का एक हिस्सा जिसमें परीक्षाओं के बाद उसका परिणाम दिया जाता है. रिजल्ट किसी के लिए खुशी तो कहीं उदासी लेकर आता है. लंबे समय से एक बात कही जा रही है कि रिजल्ट को इतना बड़ा हौव्वा मत बनाइए, ये बस एक तरीका है जिससे प्रेरित होकर बच्चे सीखने पर ध्यान दें. फिर भी यूपी बोर्ड 10वीं 12वीं के रिजल्ट के बाद ऐसी दो घटनाएं सामने आई हैं जिसमें छात्रों ने आत्महत्या कर ली. यह सोचने का समय है कि आख‍िर कैसे समाज में रिजल्ट को लेकर पेरेंट्स और बच्चों की मानसिकता में बदलाव लाया जाए.

दिल्ली विश्वविद्यालय के श‍िक्षक व श‍िक्षाविद डॉ हंसराज सुमन कहते हैं कि नई राष्ट्रीय श‍िक्षा नीति 2020 के बाद रिजल्ट के मायने बहुत बदल गए हैं. अब रिजल्ट उतना प्रभावी नहीं रह गया है जितना पहले था. पहले 12वीं के रिजल्ट का असर स्नातक दाख‍िले पर पड़ता था. लेकिन अब श‍िक्षा नीति आने के बाद यूनिवर्सिटीज दाख‍िले का सिस्टम सीयूईटी यानी कॉमन यूनिवर्सिटी एडमिशन टेस्ट पर आधारित हो गया है. दिल्ली विश्वव‍िद्यालय समेत देश की टॉप यूनिवर्सिटीज में इसी टेस्ट के जरिये दाखिले मिलेंगे.

अब सवाल यह है कि आख‍िर क्यों रिजल्ट को इस कदर व्यक्त‍ि की योग्यता की पहचान, परिवार के स्वाभ‍िमान के साथ जोड़ा जाता है. पेरेंट्स को रिजल्ट के प्रभाव को कम करने के लिए न स‍िर्फ खुद को बल्क‍ि अपने बच्चे को भी तैयार करना होगा. आप सोचकर देख‍िए आपका बच्चा रिजल्ट खराब होने पर खुदकुशी पर मजबूर हो जाए. इहबास दिल्ली के वरिष्ठ मनोचिकित्सक डॉ ओमप्रकाश कहते हैं कि आज के दौर में प्रतिस्पर्धा का स्तर बहुत ऊपर पहुंच गया है. आज जब संयुक्त परिवारों या मुहल्ला कल्चर में कमी आई है, इसके बावजूद शहरों में एकल परिवारों के तौर पर रह रहे माता-पिता भी इस प्रत‍िस्पर्धा से नहीं बच पा रहे हैं. अब मुहल्ला कल्चर की जगह सोशल मीडिया ने ले ली है.

सोशल मीडिया प्लेटफार्म मुहल्ला कल्चर से कहीं ज्यादा खतरनाक है. यहां लोगों की अभ‍िव्यक्त‍ि उनके कंट्रोल में है. वो इस प्लेटफॉर्म पर सिर्फ अपने जीवन के सुखद अनुभूतियां ही साझा करते हैं. जबकि संयुक्त परिवार संस्कृति में संवाद में ज्यादा पारदर्श‍िता थी. अब सोशल मीडिया में जब हर तरफ लोग अच्छी अच्छी बातें शेयर कर रहे हों और किसी के बच्चे का रिजल्ट अच्छा नहीं गया तो मां बाप के मन पर इसका दुष्प्रभाव पड़ता है. यह दुष्प्रभाव उनके मन में एक कुंठा को जन्म देता है. यही कुंठा बच्चों पर प्रतिक्र‍िया के तौर पर निकल जाती है.

बच्चे ने जब जन्म लिया तो आपने जरूर यही सोचा होगा कि आपके बच्चे की सेहत अच्छी रहे. आपका बच्चा खुश रहे. साल बीतते बीतते आप उसके पैरों पर चलने का इंतजार करते हैं. पैरों पर चलने लगा तो आपको इंतजार होता है उसे स्कूल भेजने का. लेकिन अचानक आपके मन में बच्चे से हर कदम पर “एक्सीलेंट” प्रदर्शन की उम्मीद कहां से आ गई. अगर आप उसे हर कदम पर सबसे आगे देखना चाहते हैं, आप उसे हर परीक्षा में टॉप होते देखना चाहते हैं तो ठहरिए, अपने बच्चे से क्या आप ब‍िना शर्त बिना चाहत या बिना स्वार्थ के प्यार नहीं कर सकते. आपका प्यार पाने के लिए क्या उसे हर कदम पर खुद को सर्वश्रेष्ठ साबित करने की जरूरत है. अगर ऐसा है तो आपको अपनी पेरेंट‍िंग बदलने की जरूरत है न कि बच्चे पर प्रेशर डालने की.

आपने बच्चे की तुलना दूसरे बच्चे से कब शुरू की. नन्हें नन्हें पैरों पर चलता आपका बच्चा आपकी आंखों का तारा रहा है. अचानक आपने उससे यह कहना शुरू कर दिया कि फलां मौसी, फलां बुआ या पड़ोसी के बच्चे को देखो, तुमसे कितना अच्छा कर रहा है. अगर आप अपने बच्चे की तुलना दूसरों से कर रहे हैं तो भले ही उसके प्रदर्शन में थोड़ा-बहुत सुधार आ जाए लेकिन उससे उसका व्यक्त‍ित्व कैसा बनेगा, ये भी सोचकर देख‍िएगा. उनमें स्वस्थ प्रत‍िष्पर्धा के बजाय ईर्ष्या, द्वेष जलन जैसी भावनाएं भी पनप सकती हैं. समाज में दूसरों से ईर्ष्या करने वाले लोगों को किस तरह लिया जाता है, यह भी आपको पता ही होगा.

अक्सर माता-पिता बनने के बाद लोग अपने बचपन की तमाम गलतियों को भूल-सा जाते हैं. बच्चों के सामने आप एक अनुशासित माता-पिता हैं, बच्चे आपको आदर्श मानते हैं, यह अच्छी बात है. लेकिन अगर आप खुद को एक ऐसा आदर्श मान बैठे हैं जो कभी फेल नहीं होता. जो सिर्फ पढ़ता रहा. जो हमेशा सफल रहा. जो बेहद अनुशासित रहा, तो आप खुद से झूठ बोल रहे हैं. हर इन्सान बचपन से अपनी गलतियों से सीखता है. अपनी असफलताओं से सबक लेकर सफल होता है. इसलिए बच्चों को भी एक सामान्य इंसान के तौर पर ही हमेशा ट्रीट करें.

अगर आप बच्चे की परवरिश उसके परफॉर्मेंस के आधार पर प्यार या गुस्सा दिखाकर नहीं करते हैं तो यकीन मानिए आपके बच्चा पढ़ने में भले ही औसत हो, लेकिन वो एक बेहतर व्यक्त‍ि बनेगा. बच्चे अगर घर से तुलना करना नहीं सीखेंगे तो वो खुद भी कभी दूसरों से अपनी नकारात्मक रूप से तुलना नहीं करेंगे, इस तरह उनमें स्वस्थ प्रत‍िष्पर्धा रहेगी. बच्चे को एंजाइटी और डिप्रेशन से दूर रखने के लिए आपका उसका दोस्त होना जरूरी है. तभी तनाव या परेशानी के वक्त आप उसके हावभाव या संवाद से उसे समझ सकते हैं. इसी आधार पर उन्हें समझा सकते हैं.

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