आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट की 50% वाली व्यवस्था हो सकती है खत्‍म, जाति जनगणना से खुलेगा रास्ता

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नई दिल्‍ली : दशकों से भारत में आरक्षण बढ़ाने की मांग सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित 50% की सीमा से टकराती रही है। लेकिन केंद्र सरकार द्वारा घोषित जातीय जनगणना इस बहस को एक नया मोड़ दे सकती है। 1992 के इंदिरा साहनी बनाम भारत सरकार के मामले में सुप्रीम कोर्ट की नौ जजों की पीठ ने कहा था कि आरक्षण की सीमा 50% से अधिक नहीं होनी चाहिए। कोर्ट ने मंडल आयोग की सिफारिशों को मानते हुए ओबीसी के लिए 27% आरक्षण को मंजूरी दी, लेकिन साथ ही क्रीमी लेयर को बाहर करने और असाधारण परिस्थितियों को छोड़कर कुल आरक्षण सीमा पर रोक भी लगाई।

इसके बाद कई बार केंद्र और राज्यों द्वारा इस सीमा से ऊपर आरक्षण देने की कोशिशें की गईं, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने हर बार आंकड़ों और तथ्यों की मांग करते हुए इन्हें खारिज कर दिया। 2006 में एम नागराज बनाम भारत सरकार केस में सुप्रीम कोर्ट ने एससी/एसटी को प्रमोशन में आरक्षण देने को वैध ठहराया, लेकिन तीन कसौटियां भी तय कर दी। पिछड़ापन, प्रतिनिधित्व की कमी और प्रशासनिक दक्षता पर प्रभाव को ध्यान में रखते हुए प्रमोशन में आरक्षण देने की बात कही गई। राज्यों को इन सभी मापदंडों को डेटा के माध्यम से साबित करना अनिवार्य बताया गया।

2018 के जर्नैल सिंह फैसले में कोर्ट ने एससी/एसटी के लिए पिछड़ापन साबित करने की आवश्यकता को हटा दिया, लेकिन प्रतिनिधित्व की कमी और डेटा प्रस्तुत करने की अनिवार्यता को बनाए रखा। सुप्रीम कोर्ट ने 2014 में जाट समुदाय को ओबीसी सूची में शामिल करने की यूपीए सरकार की कोशिश को खारिज कर दिया। 2018 में महाराष्ट्र सरकार द्वारा मराठा आरक्षण बढ़ाने के कानून को भी सुप्रीम कोर्ट ने रद्द कर दिया क्योंकि इससे 50% की सीमा पार हो रही थी। इसके बाद संसद को अनुच्छेद 342A में संशोधन करना पड़ा ताकि राज्य खुद SEBC (सामाजिक-आर्थिक पिछड़ा वर्ग) की पहचान कर सकें।

लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण के लाभों को बढ़ाने के प्रयासों को भी खारिज कर दिया है। देश की सर्वोच्च अदालत ने बिहार, गुजरात, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, दिल्ली, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और राजस्थान के कुछ जिलों में जाटों को ओबीसी की सूची में शामिल करने के तत्कालीन संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार के फैसले को रद्द कर दिया।

कोर्ट ने महाराष्ट्र के 2018 के एक कानून को रद्द कर दिया, जिसने मराठों को आरक्षण का लाभ दिया गया। तर्क दिया कि इससे राज्य में कुल आरक्षण 50% के निशान को पार कर जाएगा। उस फैसले में यह भी कहा गया था कि केवल केंद्र सरकार ही सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग या एसईबीसी को परिभाषित कर सकती है। इस फैसले के बाद, संसद को अनुच्छेद 342ए में संशोधन करना पड़ा, जिससे राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को एसईबीसी की पहचान करने का अधिकार बहाल हो गया।

2019 में केंद्र ने संविधान में संशोधन कर 10% आरक्षण EWS वर्ग के लिए लागू किया। यह सीमा के ऊपर आरक्षण था, लेकिन 2022 में सुप्रीम कोर्ट ने इसे वैध ठहराया और कहा कि आर्थिक आधार पर आरक्षण संविधान सम्मत है। अब केंद्र द्वारा घोषित जातीय जनगणना वास्तविक आंकड़ों और प्रतिनिधित्व की स्थिति को दर्शाएगी। इसके बाद यह संभवतः सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित मानकों को पूरा कर सकती है। यह जनगणना आने वाले वर्षों में आरक्षण व्यवस्था और न्यायिक समीक्षा के संदर्भ में नीति निर्धारण के लिए एक ठोस आधार बन सकती है।

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