नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय (I&B) को निर्देश दिया कि वह सोशल मीडिया पर यूजर जनरेटेड कंटेंट (UGC) के अपलोड होने से पहले उसकी स्क्रीनिंग के लिए एक प्रि-स्क्रीनिंग मैकेनिज्म का मसौदा तैयार करे। कोर्ट ने कहा कि सोशल मीडिया पर कुछ कंटेंट इतनी तेजी से वायरल हो जाता है कि उसे हटाने से पहले ही समाज में अशांति फैल जाती है, इसलिए केवल पोस्ट-फैक्टो कार्रवाई काफी नहीं है।
मामले की सुनवाई मुख्य न्यायाधीश (CI) जस्टिस सूर्यकांत और जस्टिस जॉयमाल्या बागची की पीठ कर रही थी। पीठ ने कहा कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बहुत महत्वपूर्ण है, लेकिन यह पूर्णतः निरंकुश नहीं है। अमेरिका के फर्स्ट अमेंडमेंट की तरह यह पूर्ण अधिकार नहीं है। यूजर-जेनरेटेड कंटेंट के मामले में सेल्फ-रेगुलेटरी कोड काम नहीं कर रहे। अगर कोई राष्ट्र-विरोधी कंटेंट अपलोड हो जाता है, तो सरकार द्वारा उसे नोटिस कर हटाने का आदेश देने तक एक-दो दिन लग जाते हैं। इतने में वह वायरल होकर समाज में अशांति पैदा कर चुका होता है।
पीठ ने कहा कि हम ऐसा कोई तंत्र अप्रूव नहीं करेंगे जो अभिव्यक्ति को दबाए। हम एक ‘यथोचित निवारक व्यवस्था’ चाहते हैं- जो सोशल मीडिया पर हानिकारक सामग्री के डालने से पहले उसे छान सके। आज इस क्षेत्र में एक वैधानिक रिक्तता है, जिसे भरना आवश्यक है। पीठ ने कहा कि आज इस क्षेत्र में कानूनी शून्यता है जिसे भरने की जरूरत है। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) के जरिए कंटेंट क्यूरेशन की जबरदस्त संभावना है। कुछ कंटेंट शैक्षणिक हो सकता है, फिर भी अश्लील या घृणास्पद हो सकता है।
‘एंटी-नेशनल’ शब्द पर बहस
सुनवाई के दौरान अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने एंटी-नेशनल शब्द के इस्तेमाल का विरोध किया और कहा कि इसका इस्तेमाल चुनिंदा और व्यक्तिपरक तरीके से होता है। उन्होंने पूछा कि क्या किसी क्षेत्रीय विवाद पर चर्चा करना भी ‘राष्ट्र-विरोधी’ माना जाएगा?
CJI ने इस पर उदाहरण देते हुए कहा कि यदि कोई व्यक्ति सोशल मीडिया पर भारत के किसी हिस्से को पड़ोसी देश का बताकर वीडियो पोस्ट कर दे, तो क्या यह राष्ट्र-विरोधी नहीं माना जाएगा?

भूषण ने जवाब दिया- सिक्किम के भारत में विलय पर सवाल उठाना महज एक दृष्टिकोण है, इसे राष्ट्र-विरोधी नहीं कहा जा सकता। चीन के दावों पर चर्चा करना भी राष्ट्र-विरोधी नहीं है। इस पर सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कड़ी आपत्ति जताई और कहा कि न्यायिक कार्यवाही में अलगाववाद को उकसाया नहीं जाना चाहिए।
‘वायरल होने से पहले रोकथाम जरूरी’
पीठ ने बताया कि ‘ऑपरेशन सिंदूर’ के दौरान एक व्यक्ति ने पाकिस्तान के समर्थन में वीडियो पोस्ट किया था। जब मामला कोर्ट पहुंचा तो उसने कहा कि उसने एक घंटे में पोस्ट डिलीट कर दिया था। कोर्ट ने कहा- इस दौर में पोस्ट डालते ही वह वायरल हो जाता है। वर्तमान में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है जो अपलोडिंग को ही रोक सके। मौजूदा कानून सिर्फ अपलोड के बाद कार्रवाई की अनुमति देता है। लेकिन जरूरत ‘निवारक तंत्र’ की है, ताकि गलत सूचना को फैलने से पहले ही रोका जा सके।
‘सरकार को सेंसरशिप का अधिकार नहीं, लेकिन स्वायत्त निकाय होना चाहिए’
OTT और ब्रॉडकास्टर संगठनों ने दलील दी कि उनके पास पहले से ही सेल्फ-रेगुलेशन कोड हैं और प्रि-सेंसरशिप आवश्यक नहीं है। इस पर कोर्ट ने पूछा कि यदि व्यवस्था काम कर रही है तो फिर हानिकारक सामग्री बार-बार सोशल मीडिया पर कैसे दिख रही है? पीठ ने स्पष्ट किया कि न सरकार को यह शक्ति दी जा सकती है और न ही प्लेटफॉर्म स्वयं यह तय करें कि कौन-सी सामग्री समाज के लिए हानिकारक है।
पीठ ने कहा कि सरकार के विरुद्ध बोलना राष्ट्र-विरोधी नहीं है, यह लोकतंत्र का अधिकार है। लेकिन समस्या उस सामग्री की है जो वायरल होकर समाज में अशांति फैलाती है।
सरकार को चार सप्ताह में मसौदा तैयार करने का निर्देश
अटॉर्नी जनरल आर. वेंकटरमणी और एसजी तुषार मेहता ने अदालत को बताया कि मंत्रालय चार सप्ताह में ड्राफ्ट तैयार कर सार्वजनिक सुझाव लेगा। कोर्ट ने कहा कि मसौदा तैयार करते समय डोमेन विशेषज्ञों, न्यायविदों और मीडिया पेशेवरों की मदद ली जानी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट मसौदा तंत्र तथा सार्वजनिक सुझावों पर विचार करने के बाद इस मुद्दे पर आगे की सुनवाई करेगा।