मालेगांव ब्लास्ट केस में सभी आरोपी बरी, भगवा आतंकवाद का आरोप साबित नहीं
2008 के मालेगांव धमाके में स्पेशल एनआईए कोर्ट का बड़ा फैसला, सबूतों के अभाव में सभी सात आरोपी रिहा
मुंबई: 2008 के मालेगांव बम विस्फोट मामले में स्पेशल एनआईए कोर्ट ने गुरुवार को अहम फैसला सुनाते हुए सभी सात आरोपियों को बरी कर दिया। अदालत ने माना कि विस्फोट हुआ था, लेकिन अभियोजन पक्ष यह साबित नहीं कर सका कि विस्फोटक संबंधित मोटरसाइकिल में रखा गया था या इसका आरोपियों से सीधा संबंध था।
कोर्ट ने क्यों बरी किया:
कोर्ट के मुताबिक, अभियोजन पक्ष द्वारा पेश किए गए सबूतों में कई खामियां थीं। न तो घटनास्थल का स्केच तैयार किया गया, न ही फिंगरप्रिंट, डेटा या पुख्ता फॉरेंसिक प्रमाण प्रस्तुत किए गए। कोर्ट ने कहा कि यूएपीए (गैरकानूनी गतिविधियां निवारण अधिनियम) लगाने के लिए आवश्यक स्वीकृति भी दोषपूर्ण थी और बिना विधिक मंजूरी के फोन टैपिंग की गई।
अहम टिप्पणियां:
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बाइक का चेसिस नंबर अस्पष्ट था।
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यह साबित नहीं हो सका कि विस्फोट से पहले वह मोटरसाइकिल साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर के पास थी।
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श्रीकांत प्रसाद पुरोहित के घर से विस्फोटक जुड़ने का कोई प्रमाण नहीं मिला।
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घटनास्थल से मिले मोबाइल फोन और वाहनों का सीधा संबंध किसी आरोपी से नहीं जोड़ा जा सका।
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मेडिकल सर्टिफिकेट्स में विसंगतियां थीं—घायलों की संख्या 101 नहीं बल्कि 95 मानी गई।

राजनीतिक और सामाजिक प्रतिक्रियाएं:
मामले में आरोपी रहीं साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर ने फैसले के बाद कहा, “भगवा को बदनाम करने की साजिश थी। मेरे साथ अन्याय हुआ, मेरी साध्वी की जिंदगी बर्बाद की गई।”
बचाव पक्ष के वकील जेपी मिश्रा और रंजीत नायर ने फैसले को “सत्य की जीत” बताया। वहीं विपक्षी दलों के कुछ नेताओं ने जांच और राजनीतिक दखल पर सवाल खड़े किए हैं।
29 सितंबर 2008 को महाराष्ट्र के मालेगांव में एक मस्जिद के पास खड़ी मोटरसाइकिल में विस्फोट हुआ था, जिसमें 6 लोगों की मौत और 95 से अधिक घायल हुए थे। मामले में साध्वी प्रज्ञा ठाकुर, लेफ्टिनेंट कर्नल श्रीकांत पुरोहित सहित सात लोगों पर यूएपीए और भारतीय दंड संहिता की विभिन्न धाराओं में मुकदमा चलाया गया था।
एनआईए की दलील:
एनआईए ने अपनी अंतिम दलीलों में कहा था कि विस्फोट की साजिश मुस्लिम समुदाय में डर पैदा करने और राज्य की सुरक्षा को खतरे में डालने के उद्देश्य से रची गई थी। हालांकि, कोर्ट ने अभियोजन पक्ष के इन तर्कों को पर्याप्त सबूतों के अभाव में स्वीकार नहीं किया।